*कुंडली जागरण के बहुत से उपाय हैं लेकिन किसी की कुंडलिनी भगवान के प्रति प्रेम के कारण स्वत: जागृत हो जाती है, किसी की कुंडलिनी गुरु की कृपा के कारण जागृत हो जाती है, किसी की कुंडलिनी सूक्ष्म विचार के कारण जागृत हो जाती है. कुंडलिनी जागरण का अर्थ होता है व्यक्ति की प्रकाश से भेंट जब हमारी चेतना अंतः यात्रा में प्रकाश को पार कर जाती है तब कुंडलिनी जागरण होता है कुंडलिनी जागरण मनुष्य को देवता तुल्य बना देता है असीमित शक्तियों का स्वामी ,सिद्ध महापुरुष बना देता है प्रत्येक मनुष्य के भीतर यह प्रकृति प्रदत्त जीवंत शक्ति है यह कुंडली अनंत ज्ञान सुख और शक्ति की जननी है . आज हम मोक्ष की अवधारणा को ज्योतिष के आईने से देखते हैं . चंद्रमा मन का कारक होता है हमारे विचारों का कारक होता है, हमारे भावनाओं का कारक होता है ,मन ही बंधन और मोक्ष का कारण होता है .मन जब गुरु से मिलता है मन में धार्मिकता आ जाती है ,ईश्वर के प्रति समर्पण आ जाता है, नियमों को पालन करने की एक विशेष योग्यता आ जाती है, आत्म अनुशासन की प्रवृत्ति जागृत हो जाती है.जब मन का कारक चंद्रमा शनि के साथ युति करता है तो मन में लगन से काम करने की क्षमता आ जाती है मन में गंभीरता आ जाती है .शनि नियम के अनुसार कार्य करने वाला वैराग्यवान संत, निरंतर तपस्या में लीन रहने वाला, कर्म को सर्वोपरि महत्व देने वाला, वैराग्यवान कर्मयोगी होता है. शनी के संपर्क में जब चंद्रमा आता है तो मन में गंभीरता आने लगती है, वैराग्य आने लगता है, नियमबद्ध ,समय बद्ध रहकर काम करने की आदत विकसित होती है .इसी में जब केतु का प्रभाव आता है तो शनि पूर्णरूपेण तपस्वी हो जाता है. शनि शिव का स्वरूप होता है. केतु त्रिशूल का कारक होता है, जटाओं का कारक होता है .भगवान शिव की जटाओं में गंगा होती है. त्रिशूल में मोक्ष की संकल्पना छुपी होती है .हमारी प्रकृति त्रिगुणात्मिका होती है.शनि जब नवम भाव से ,द्वादश भाव से, अष्टम भाव से या दूसरे भाव से जुड़ता है तो शनी में धर्म का अध्यात्म का गूढ़ ज्ञान आने लगता है .यदि अष्टमेश की
युति भी शनि के साथ हो गई तो ऐसा व्यक्ति पूर्णरूपेण सन्यास की ओर आकर्षित हो जाता है .
आप लोगों को पता होगा जब चंद्रमा का संबंध शनी से होता है, केतु से होता है ,गुरु से होता है ऐसा व्यक्ति धार्मिक ,आध्यात्मिक ज्ञानसंपन्न ,ध्यान में रत रहने वाला होता है. ध्यान मे लीन जातक तब होता है जब चंद्रमा का संबंध शनी से होता है. आपने भगवान शिव को देखा होगा वह हमेशा ध्यानमग्न रहते हैं ,तपस्या में लीन रहते हैं .वही स्वरूप शनि का होता है.
हिंदू धर्म में मोक्ष की अवधारणा को स्पष्ट करते हुए ऋषि योंने कहा है “जन्म मरण से मुक्ति ही मोक्ष होती है “.मोक्ष का व्यापक अर्थों में प्रयोग किया जाता है. जब व्यक्ति तीन प्रकार के दुखों से पूर्णरूपेण मुक्त हो जाता है तो उसका विवेक ज्ञान जागृत हो जाता है .वह त्रिगुणात्मक प्रकृति के संपूर्ण स्वरूपों को जान लेता है तो प्रकृति उसके सामने अपना कार्य संपादन बंद कर देती है और व्यक्ति कुम्हार के चाक की भांति संस्कार वशात शरीर को धारण किए रहता है .अर्थात जो स्थूल शरीर होता है उस शरीर को व्यक्ति तब तक धारण किए रहता है जब तक उसके सभी कर्मों का सभी प्रकार के भोगों का भोग पूर्ण नहीं हो जाता है .
हमारे मूलाधार में बुध का वास होता है. स्वाधिष्ठान में शुक्र का, मणिपुर में सूर्य का, अनाहत में मंगल का, विशुद्धि में चंद्रमा का, आज्ञा में गुरु का, सहस्त्रार में शनि का वास होता है .कुंडली का जागरण गुरु की कृपा से संभव होता है जो व्यक्ति जन्म जन्मांतर से इस क्षेत्र में कार्य कर रहा होता है उस व्यक्ति की कुंडली में गुरु मोक्ष त्रिकोण में होता है .गुरु का मोक्ष त्रिकोण में बैठना यह बताता है की ऐसे जातक ने पूर्व जन्मों में आत्म साक्षात्कार के लिए ,कुंडली के जागरण के लिए प्रयत्न किए हैं यदि D20 या मोक्ष त्रिकोण में गुरु की स्थिति है तो इस जन्म में कुंडली जागरण की स्थिति बन सकती है .यदि आपके जन्मांग में शनि चंद्र केतु का प्रभाव है, शुक्र चंद्र केतु का प्रभाव है तो पूर्व जन्म में आपने इस क्षेत्र मे कार्य किया है .
राहु कुंडलिनी का कारक होता है. कुंडलिनी सर्पाकार होती है .गहन अंधकार में सोई हुई होती है. कुंडलिनी अपनी जगह से उठ करके मूलाधार से सहस्रार चक्र तक यात्रा करती है .
अब सूक्ष्म शरीर पर चलते हैं .हमारे शरीर में कारण शरीर के अंदर एक लिंग शरीर होता है ,जिसे सूक्ष्म शरीर कहते हैं. सूक्ष्म शरीर में वेदांत के अनुसार 17 तत्व होते हैं जिनमें एकादश इंद्रियां ,पंच वायु तथा बुद्धि तत्व होता है सूक्ष्म शरीर में पंचप्राण नहीं होते .पांच प्राण पांच तत्व नहीं होते.
ज्योतिष में सूक्ष्म शरीर का कारक गुरु होता है .गुरु आकाश तत्व है जिसे हम जीव तत्व कहते हैं जीव तत्व हमारी पाँच ज्ञानेंद्रियां ,पाँच कर्मेंद्रियां ,मन और बुद्धि में अधिकार रखता है. इसी के अनुसार सुख और दुख का अनुभव करता है गुरु सूक्ष्म शरीर होता है. सूर्य आत्मा होती है. केतु आत्मा का गूढ़ ज्ञान होता है. जब गुरु का संबंध सूर्य से केतु से मोक्ष त्रिकोण में होता है तो जातक को आत्म साक्षात्कार प्राप्त होने की प्रबल संभावना होती है .ऐसे जातकों में आत्म ज्ञान होता है ऐसे जातक जन्म जन्मांतर से अपने आत्म जागरण के लिए प्रयत्न रत होते हैं.सभी संतो की कुंडली में ,क्रिया योगी की कुंडली में लग्न में राहु केतु का प्रभाव अवश्य होता है .शनी का चंद्र केतु गुरु से संबंध अवश्य होता है. पंचम भाव का संबंध अष्टम भाव से अवश्य होता है .मोक्ष त्रिकोण में धर्म अध्यात्म के क्षेत्र में सफलता देने वाले ग्रह अवश्य होते हैं.
आप लोगों ने देखा होगा अध्यात्मिक शक्ति संपन्न व्यक्ति केवल बातचीत से हीलिंग के द्वारा मानसिक क्रियाओं से किसी के भी कष्ट को हर लेते हैं .वहां पर चंद्रमा की शुभ ही स्थिति बहुत निर्णायक होती है क्योंकि चंद्रमा ही धन्वंतरी औषधि वनस्पतियों से संबंध रखता है.जब व्यक्ति अपने इस जन्म में अपने सूक्ष्म शरीर को मिट्टी बना देता है, उसका चूर्ण बना देता है, तब व्यक्ति दोबारा जन्म नहीं लेता है. अब आप यहां पर यह समझ रहे होंगे ऐसा कैसे तो अब हम आपको बताते हैं ,एक किसी भी पेड़ की गुठली लीजिए उसका बीज लीजिए उसको चूर्ण बना दीजिए उसके बाद जमीन में उसको बो दीजिए क्या अंकुरण आ जाएगा ? नहीं आएगा क्योंकि बीज के अंदर का सूक्ष्म शरीर नष्ट हो चुका है. इसीलिए बीज से दूसरे पौधे का अंकुरण नहीं होगा .इसी तरह ऋषि मुनि साधना ,तपस्या धर्म ,अध्यात्म ,दान के बल पर अपना सूक्ष्म शरीर नष्ट कर देते थे. जैसे दधीच ने अपने शरीर से सूक्ष्म शरीर को अलग कर दिया और देवताओं को अपना स्थूल शरीर अर्पित कर दिया. जब तक सूक्ष्म शरीर नष्ट नहीं होता है तब तक जन्म जन्मांतर की यात्रा आत्मा करती रहती है और यह क्रम बराबर बना रहता है.
आप लोगों ने अनुभव में देखा होगा महापुरुष कम समय तक जीते हैं ,क्योंकि उनके जो कर्म बचे होते हैं इसीलिए वह उनको भोगने के लिए इस संसार में जन्म लेते हैं .जैसे ही भोग पूरा होता है संसार को त्याग कर ब्रह्मांड में विलीन हो जाते हैं. आत्मा और जीव जब दोनों अलग हो जाते हैं या कहें आत्मा से अर्थात सूर्य से जब गुरु और मंगल अलग हो जाते हैं तो आत्मा परम तत्व में विलीन हो जाती है .वह जन्म-मृत्यु के बंधन से मुक्त हो जाती है .वह पूर्णरूपेण जीवन मुक्त अवस्था में आकर तब तक शरीर को नहीं छोड़ती है जब तक कर्मों के सभी भोग समाप्त नहीं हो जाते जैसे कुम्हार के पहिए को चक्र को एक बार घुमा देने पर काफी देर तक घूमता रहता है. उसी तरह जीवन मुक्त योगी भी लंबे समय तक शरीर को धारण किए रहता है .जब तक सभी प्रकार के भोग समाप्त नहीं हो जाते हैं .भोग समाप्त होते ही प्राण त्याग कर परम तत्व में विलीन हो जाता है ,परम आनंद की अवस्था में व्याप्त हो जाता है.*